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वामपंथी राष्ट्रपति के पुनः सत्तारूढ़ होने के बाद * ब्राज़ील में हक- हकूक की लड़ाइयों ने गति पकड़ी***

***जेडीन्यूज़ विज़न ***

(डा॰ गिरीश)

राज सत्ता पर जब लोकतान्त्रिक, प्रगतिशील अथवा वामपंथी शक्तियां काबिज होती हैं तो हक और हकूक की लड़ाइयाँ तेज होती हैं और लोग रोजी, रोटी तथा अधिकार प्राप्त करने के संघर्षों को आगे बढ़ाते हैं। सत्ता पर जब तानाशाह, क्रूर और निजस्वार्थपरक शक्तियां काबिज होती हैं तो हक- हकूक की लड़ाइयों को कुचल कर धर्म, जाति, संस्कृति और क्षेत्र के नाम पर टकरावों को आगे कर देती हैं।

वामपंथी राष्ट्रपति लूला डी॰ सिल्वा की जीत के बाद ब्राज़ील में कुछ ऐसा ही देखने को मिल रहा है। गत दक्षिणपंथी राष्ट्रपति बोल्सोनारो की जनता के प्रति आक्रमणकारी नीतियों के चलते जनता के हितों के लिए लड़े जाने वाले संघर्ष थम गए थे, वे आज पुनः मुखरित होने लगे हैं।

ब्राज़ील एक  ऐसा देश है जहां कृषि उद्योग बहुत ताकतवर है और अधिकतर ज़मीनों पर बड़े फार्म मालिकों का कब्जा है। फार्म लाबी वहाँ की सत्ता पर सीधे नियंत्रण जमाती रही है। परिणामतः वहाँ भूमिहीनों की संख्या पर्याप्त है, जो भूमि पर भागीदारी पाने को लंबे समय से संघर्षरत हैं।

बोल्सोनारो के सत्ता में रहते जो भूमि आंदोलन ठिठक गया था आज वह वामपंथी राष्ट्रपति लूला के पुनः सत्ता में आने के बाद परवान चढ़ना शुरू हो गया है। इसकी एक बहुत ही खूबसूरत और तथ्यपरक  रिपोर्ट ‘द न्यूयार्क टाइम्स’ के अभी हाल के अंक में प्रकाशित हुयी है।

न्यूयार्क टाइम्स लिखता है-

वे कुदाल, फाबड़ा, छुरी, हथौड़ा और हंसिया या दराती जैसे हथियार जैसे औजारों के साथ जमीन पर कब्जा करने के इरादे से पहुंचे थे। ये 200 एक्टिविस्ट और खेतिहर मजदूर जब वहां पहुंचे, तो घास- फूस और एक आवारा गाय को छोड़ कर पूरा फार्म खाली था। अब तीन महीने बाद यह एक चहल- पहल भरे गांव में बदल चुका है। हाल ही में बच्चों ने यहां के नये कच्चे रास्तों पर साइकिल चलाई, महिलाओं ने बगीचों के लिये मिट्टी खोदी और पुरुषों ने आश्रयस्थलों के ऊपर तिरपाल बिछाये।

करीब 530 परिवार पूर्वोत्तर ब्राज़ील के शहर इटाबेला की इस बस्ती में रहते हैं। वे आपस में घुलमिल गये हैं और उन्होने वहां सेम, मक्का और कसावा रोप दिये हैं। जिन भाई- बहनों को यह 370 एकड़ खेत विरासत में मिले थे, वे चाहते हैं कि वे अवैध कब्जाधारी वहां से चले जायें। मगर यहां के नये कब्जाधारियों का कहना है कि वे कहीं नहीं जा रहे हैं।

इस डेरे के प्रभावी नेता 38 वर्षीय अलसियोनी मैनथे ने कहा, आजीविका, संघर्ष और टकराव की एक प्रक्रिया है। यदि कहीं आजीविका न हो, तो वहां कोई बस्ती भी नहीं होगी।

मैनथे और अन्य बिन बुलाये पदाधिकारी लैंडलेस वर्कर्स मूवमेंट का हिस्सा हैं, जो कि शायद दुनियां का सबसे बड़ा मार्क्सवादी- प्रेरित आंदोलन है और एक लोकतन्त्र के भीतर काम कर रहा है तथा 40 वर्षों के खूनी कब्जे के बाद ब्राज़ील में एक प्रमुख राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ताकत बन गया है।

इस आन्दोलन ने ब्राज़ील के हजारों गरीबों को संगठित कर उन्हें अमीरों की अनुपयोगी ज़मीनो पर कब्जा कर बसने तथा सामूहिक खेती करने के लिये प्रेरित किया। वे कहते हैं कि वे ब्राज़ील में भूमि के असमान वितरण से उत्पन्न गहरी असमानता को उलट रहे हैं। वामपंथियों ने उनके उद्देश्य का समर्थन किया है, पर अनेक ब्राजीलवासी उन्हें कम्युनिस्ट और अपराधी की तरह देखते हैं।

इसने इस आन्दोलन के समर्थक नये राष्ट्रपति लूला डी॰ सिल्वा के लिये दुविधा पैदा कर दी है, जो कि अभी संसद और ताकतवर कृषि उद्योग के बीच समन्वय बनाने की कोशिश कर रहे हैं।

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि अभी 4,60,000 परिवार लैंडलेस वर्कर्स मूवमेंट द्वारा शुरू किये गये शिविरों और बस्तियों में रहते हैं। वहां रहने वालों की संख्या 20 लाख के करीब पहुंच रही है, जो कि ब्राज़ील की आबादी का लगभग एक फीसदी के बराबर है।

बोल्सोनारो के शासन में उनकी आक्रामक नीतियों के कारण आन्दोलन की गति फीकी पड़ गयी थी। पर अब लूला के चुनाव से उत्साहित आन्दोलन के सदस्यों ने जमीन पर कब्जे की मुहिम तेज कर दी है।

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