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नाना साहेब सन् 1857 के भारतीय स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम के शिल्पकार थे। उनका मूल नाम धुंधूपंत’ था। स्वतंत्रता संग्राम में नाना साहेब ने कानपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोहियों का नेतृत्व किया। इतना ही नहीं कानपुर को कुछ समय के लिए स्वतंत्र कराने में भी सफलता प्राप्त की थी। देश के अनेक क्रांतिकारी युवाओं को उनके मार्गदर्शन में काम करने का अवसर प्राप्त हुआ था। अंग्रेजों ने अपनी हठधर्मिता दिखाते हुए उनके स्वाभिमान को चोट पहुंचाई। जिससे देशभक्त नानासाहेब क्रांतिकारियों के नेता बनकर उभरे । नाना साहब ने सन् 1824 में वेणुग्राम निवासी माधवनारायण राव के घर जन्म लिया था। इनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के सगोत्र भाई थे। पेशवा बाजीराव को अपनी कोई निजी संतान नहीं थी। इसीलिए उन्होंने बालक नानाराव को अपना दत्तक पुत्र स्वीकार किया और उनकी शिक्षा दीक्षा का यथेष्ट प्रबंध किया। उन्हें हाथी-घोड़े की सवारी, तलवार व बंदूक चलाने की विधि सिखाई गई। उन्हें वे सभी सुविधाएं उपलब्ध कराई गई जो भविष्य के किसी राजा के लिए अपेक्षित थी। कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान भी कराया गया। अंग्रेजों ने 1818 में पेशवा बाजीराव को निर्वासित कर दिया था और उन्हें 8 लाख की वार्षिक पेंशन देकर उनके पद से भी हटा दिया गया था। निर्वासित मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र के रूप में नाना साहब को अपने पिता के साथ अंग्रेजों द्वारा किए गए इस प्रकार के व्यवहार से बड़ी पीड़ा होती थी। उन्हें यह देखकर और भी कष्ट होता था कि अंग्रेज हमारे देश के आम जनों के साथ बहुत ही निर्दयता का व्यवहार करते थे। उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध काम करने का मन बनाया। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने मराठा महासंघ और पेशवा परंपरा को बहाल करने की मांग की।
1851 में जब पेशवा बाजीराव का देहांत हुआ तो अंग्रेजों ने कानपुर में उनका राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार करने पर रोक लगा दी परंतु नाना साहब ने अंग्रेजों की इस प्रकार की नीति का विरोध करते हुए अपने पिता का राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया इसके बाद अंग्रेजों ने उन्हें 8 लाख की पेंशन देने से मना कर दिया। इस बात का कोई प्रभाव नाना साहब पर नहीं पड़ा और उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध जारी अपनी गतिविधियों को और भी अधिक तेज कर दिया। फल स्वरूप क्रांतिकारियों का नेतृत्व करते हुए वह एक महानायक के रूप में स्थापित हो गए। 1857 की क्रांति के समय उन्होंने क्रांति में एक क्रांति नायक के रूप में भाग लिया।
3 नवंबर 1857 को अंग्रेजों ने नानासाहेब और भी अधिक शिकंजा कसते हुए उनकी मथुरा स्थित संपत्ति को ध्वस्त करने के आदेश जारी किए थे। इतिहास को इस दृष्टिकोण से पढ़ने और समझने से पता चलता है कि अंग्रेजों ने हमारे क्रांतिकारियों पर किस-किस प्रकार के अत्याचार किए थे। इसके उपरान्त भी उनके हौसले पस्त नहीं हुए थे। हम अपने ऐसे महान क्रांति नायक को आज उनके जीवन की विशेष घटना के इस दिवस पर विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ।
(डॉ राकेश कुमार आर्य)