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मेरे मानस के राम :(अध्याय 51) : मंदोदरी का विलाप…

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मेरे मानस के राम :(अध्याय 51) : मंदोदरी का विलाप

रामचंद्र जी विभीषण को पूर्व में ही यह वचन दे चुके थे कि लंका की जीत के पश्चात वह रावण के स्थान पर उन्हें लंका का राजा बनाएंगे। आज वह घड़ी आ गई थी, जब लंका के राजा रावण का अंत हो गया था। उसका राज्यसिंहासन खाली पड़ा था। जिस पर अब विभीषण का राजतिलक किया जाना था। यद्यपि उससे पहले कुछ दूसरी औपचारिकताओं का निस्तारण किया जाना भी आवश्यक था। जिनमें सबसे पहले आवश्यक था रावण का अंतिम संस्कार करना। रामचंद्र जी ने यहां भी मर्यादा का पालन किया। उन्होंने विभीषण जी को आदेश दिया कि वह राजकीय सम्मान के साथ रावण का अंतिम संस्कार करें। यह किसी आर्य राजा के द्वारा ही संभव था कि वह अपने शत्रु का अंतिम संस्कार भी राजकीय सम्मान के साथ करना चाहता था। भारत की इस प्राचीन आर्य परंपरा का निर्वाह एक मर्यादा के रूप में श्री राम जी ने किया। कालांतर में जब मुसलमान देश पर बार-बार आक्रमण कर रहे थे या हमारे राजाओं के साथ युद्ध कर रहे थे तो कई अवसर ऐसे भी आए जब हमारे किसी राजा को उन्होंने मारा और उसके शव का भी अपमान करते हुए उसके टुकड़े-टुकड़े कर इधर-उधर फेंक दिया या कुत्तों को खिला दिया। वास्तव में यह उनकी अपसंस्कृति का परिचायक है। इसे अमानवीय ही कहा जाएगा। जबकि रावण का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ करवाने का आदेश देना रामचंद्र जी की आर्य परम्परा के प्रति निष्ठा का परिचायक है।

राम जी करते रहे , विभीषण को उपदेश।
वीरता पर शोक करना, ठीक नहीं ‘लंकेश’।।

कर्म जिसके नेक हैं , वही नेक इंसान।
कर्म जिसके नीच हैं, वही नीच इंसान।।

विभीषण जी ! जो चला गया , वह लौटकर नहीं आता। संसार का प्रत्येक प्राणी विधि के विधान के समक्ष विवश हो जाता है। नियति को उसे स्वीकार ही करना पड़ता है। समय रहते मनुष्य को अपने कर्मों को सुंदर करना चाहिए। कर्म की शुचिता ही मनुष्य को कालजयी बनाती है । जिसने समय रहते कर्म की पवित्रता पर ध्यान नहीं दिया, वह मृत्यु को बार-बार प्राप्त होता रहता है।

गया कभी ना आएगा, यही जगत की रीत।
अपना धर्म निभाइए, जग को लोगे जीत।।

संस्कार देह का कीजिए , करो पूर्ण सम्मान।
कर्तव्य आपका है यही, बात मेरी लो मान।।

शोक सूचना मिल गई, पटरानी को खास।
सभी सौतनें साथ में , उड़ गए होश हवास।।

सभी दौड़ती आ गईं , करती हुईं विलाप ।
समर क्षेत्र में छा गया, तब गहरा संताप।।

मंदोदरी और अन्य रानियों का विलाप

विधवा के संताप से, हों दु:खी धरा आकाश।
करुण वेदना फैलती , होते सभी उदास।।

पटरानी कहने लगी, लिया राम से बैर।
समझाती तुमको रही , नहीं तुम्हारी खैर।।

सीता जी क्षमाशील हैं, पतिव्रता वह नार।
तप उसके ने किया , आज आपका नाश।।

कोई भी मरता नहीं , बिन कारण पतिदेव।
सीता आपकी मृत्यु का , कारण है पतिदेव।।

आंसू बहाती हो गई , मंदोदरी बेहोश।
क्योंकर ठंडा हो गया , पतिदेव का जोश।।

(डॉ राकेश कुमार आर्य)

( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है। )

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