खामोशी
कोई शख्स हो जाता है खामोश अचानक।
ओढ़ लेता है मौन का लबादा संजीदगी से।
उदासीन होने लगता है आस-पास के परिवेश से।
उतरने लगता है अंतर्मन की सीढ़ियां।
बेरंग होने लगती है आकाश की निरभ्र नीलिमा,
और अनुभव होने लगती है शून्यता,दीर्घाकार होती।
पर ,मौन! मौन कहाँ निःशब्द होता है?
समेट कर रखता है एक अव्यक्त वेदना।
घनीभूत पीड़ा को जो ह्दय में उठकर हूक तो उठाती है,
पर वर्जनाओं से टकरा कर ,लहुलुहान हो जाती है।
संवेदना का उत्ताल सागर ,गर्त में दबने लगता है।
पर संचित व्यथा मानस तल में हाहाकार करने लगती है।
किससे कहें? क्या कहें ? कौन सुनेगा मेरी पीड़ा को ?
वैयक्तिक वेदना दबा लूं मन के किसी गहन कूप में ?
पर चरमराती व्यवस्थाएं, हर तरफ भ्रष्टाचार और भव्यता के आवरण में लिपटा खोखलापन।
धनिकों की बढती समृद्धि और गरीबों के हाथों से छिनता निवाला।
युवाओं की स्वप्निल आँखों से छिनती उम्मीद की चमक।
कितना कुछ ! मर्माहत होने लगती है सुप्त अंतरात्मा ।
मेरा ओढा हुआ मौन भी धिक्कारने लगता है मेरी जिह्वा को।
कब तक खोई रहेगी कविता सुर-साज -आलाप में।
कब तक ढूंढेगी सप्रयास सौंदर्य को।
प्रकृति में , सुन्दरियों में, श्रृंगार रस में।
आना ही पडेगा लेखनी को कटु धरातल पर।
काटने होगें अनाचारी पाश।
बहानी होगी पावन निश्छल जाह्नवी
प्रेम की ,विश्वास की, समरसता की,
एकता की, सत्य-त्याग- निष्ठा व ईमानदारी की
जिसमें हर एक भारतवासी का कल्याण हो, भूख- दारिद्रय का न नामोनिशान हो। दिल में हो खुशी ,
होठों पर मीठा राग हो।
सबसे प्यारा हिन्दुस्तान हो ,हर दिल में हिन्दुस्तान हो।
———- मंजू खरे———